There are many Hindu Gods Chalisa popular to overcome the negative energy from the family. Similarly, a very prominent text Shani Dev Chalisa famous in the Hindu religion. According to Hindu mythology if you are reciting the Shani Dev Chalisa every day then you get rid of any type of problem. As you know, if Saturn’s evil eyes fall on any person so they will get in trouble. Now everyone wants to access the Shani Dev Chalisa PDF Download with Lyrics in Hindi (श्री शनि चालीसा हिन्दी में) then read this blog carefully ahead.
Shani Dev Chalisa PDF Download
Reciting Shani Chalisa is a highly efficient strategy to lessen the negative effects of Sade Sati and Saturn’s Mahadasha. Shanischar, or slow-moving, is another name for Saturn. It takes them approximately 2.5 years to finish their cycle in a single zodiac sign. The most effective way to lessen the effects of Saturn’s Sade Sati and maintain mental clarity is to recite the Shani Chalisa. One can begin receiving anything from Shani De by reciting the Shri Shani Chalisa on Saturdays with complete confidence in the Shani temple.
Standing before Shani Dev, recite this Shani Chalisa. Recitation of Shani Chalisa is done to appease Shani Dev. In the home, doing this promotes prosperity and happiness. All of the issues disappear when you use this lesson. Recitation helps you feel calmer and less irate. God Shani Dev takes down barriers, aids in our success, and guides us in solving issues. A recital of Shani Chalisa lines as a sign of respect for Lord Shani Dev. Here we share the direct link to download the Shani Dev Chalisa PDF with Hindi Lyrics.
Shani Dev Chalisa PDF with Lyrics in Hindi – Highlights
PDF Name | Shani Dev Chalisa PDF |
In Hindi | श्री शनि चालीसा हिन्दी में |
Post Category | Religion Text PDF |
File Size | 99 Kb |
Total Page | 1 to 7 |
Language | Hindi |
Shani Dev Chalisa PDF | Download Here |
श्री शनि चालीसा हिन्दी में – 1
॥दोहा॥
जय गणेश गिरिजा सुवन,
मंगल करण कृपाल।
दीनन के दुःख दूर करि,
कीजै नाथ निहाल॥जय जय श्री शनिदेव प्रभु,
सुनहु विनय महाराज।
करहु कृपा हे रवि तनय,
राखहु जन की लाज॥***
॥ चौपाई॥
जयति जयति शनिदेव दयाला,
करत सदा भक्तन प्रतिपाला॥चारि भुजा, तनु श्याम विराजै,
माथे रतन मुकुट छवि छाजै॥परम विशाल मनोहर भाला,
टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला॥कुण्डल श्रवण चमाचम चमके,
हिये माल मुक्तन मणि दमकै॥कर में गदा त्रिशूल कुठारा,
पल बिच करैं अरिहिं संहारा॥पिंगल, कृष्णो, छाया, नन्दन, यम,
कोणस्थ, रौद्र दुःख भंजन॥सौरी, मन्द शनी, दशनामा,
भानु पुत्र पूजहिं सब कामा॥जापर प्रभु प्रसन्न हवें जाहीं,
रंकहुँ राव करें क्षण माहीं॥पर्वतहू तृण होइ निहारत,
तृणहू को पर्वत कहि डारत॥राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो,
कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयों।बनहूँ में मृग कपट दिखाई,
मातु जानकी गई चुराई।लषणहिं शक्ति विकल करिडारा,
मचिगा दल में हाहाकारा॥रावण की गति-मति बौराई,
रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई॥दियो कीट करि कंचन लंका,
बजि बजरंग बीर की डंका॥नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा,
चित्र मयूर निगजि गै हारा॥हार नौलखा लाग्यो चोरी,
हाथ पैर डरवायो तोरी॥भारी दशा निकृष्ट दिखायो,
तेलहिं घर कोल्हू चलवायो॥विनय राग दीपक महँ कीन्हयों,
तब प्रसन्न प्रभु हवै सुख दीन्हयों।हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी,
आपहुं भरे डोम घर पानी॥तैसे नल पर दशा सिरानी,
भूंजी-मीन कूद गई पानी॥श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई,
पारवती को सती कराई॥तनिक विलोकत ही करि रीसा,
नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा॥पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी,
बची द्रोपदी होति उघारी॥कौरव के भी गति मति मारयो,
युद्ध महाभारत करि डारयो॥रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला,
लेकर कूदि परयो पाताला॥शेष देव-लखि विनती लाई,
रवि को मुख ते दियो छुड़ाई॥वाहन प्रभु के सात सुजाना,
जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना॥जम्बुक सिंह आदि नख धारी,
सो फल ज्योतिष कहत पुकारी॥गज वाहन लक्ष्मी गृह आवें,
हय ते सुख सम्पत्ति उपजावै॥गर्दभ हानि करै बहु काजा,
सिंह सिद्धकर राज समाजा॥जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै,
मृग दे कष्ट प्राण संहारै।जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी,
चोरी आदि होय डर भारी॥तैसहि चारि चरण यह नामा,
स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा ॥लौह चरण पर जब प्रभु आवै,
धन जन सम्पत्ति नष्ट करावें॥समता ताम्र रजत शुभकारी,
स्वर्ण सर्व सर्वसुख मंगल भारी॥जो यह शनि चरित्र नित गावै,
कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै॥अद्भुत नाथ दिखावैं लीला,
करें शत्रु के नशि बलि ढीला॥जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई,
विधिवत शनि ग्रह शांति कराई॥पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत,
दीप दान दे बहु सुख पावत॥कहत राम सुन्दर प्रभु दासा,
शनि सुमिरत सुख होत प्रकाश।***
॥ दोहा ॥
पाठ शनीश्चर देव को,
कीहों भक्त तैयार।
करत पाठ चालीस दिन,
हो भव सागर पार॥
शनि चालीसा – 2
॥ दोहा ॥
श्री शनिश्चर देवजी,
सुनहु श्रवण मम् टेर।
कोटि विघ्ननाशक प्रभो,
करो न मम् हित बेर॥***
॥ सोरठा ॥
तव स्तुति हे नाथ,
जोरि जुगल कर करत हौं।
करिये मोहि सनाथ,
विघ्नहरन हे रवि सुव्रन॥***
॥ चौपाई ॥
शनि देव मैं सुमिरौं तोही,
विद्या बुद्धि ज्ञान दो मोही।तुम्हरो नाम अनेक बखानौं,
क्षुद्रबुद्धि मैं जो कुछ जानौं।अन्तक, कोण, रौद्रय मगाऊँ,
कृष्ण बभ्रु शनि सबहिं सुनाऊँ।पिंगल मन्दसौरि सुख दाता,
हित अनहित सब जब के ज्ञाता।नित जपै जो नाम तुम्हारा,
करहु व्याधि दुःख से निस्तारा।राशि विषमवस असुरन सुरनर,
पन्नग शेष सहित विद्याधर।राजा रंक रहहिं जो नीको,
पशु पक्षी वनचर सबही को।कानन किला शिविर सेनाकर,
नाश करत सब ग्राम्य नगर भर।डालत विघ्न सबहि के सुख में,
व्याकुल होहिं पड़े सब दुःख में।नाथ विनय तुमसे यह मेरी,
करिये मोपर दया घनेरी।मम हित विषम राशि महँवासा,
करिय न नाथ यही मम आसा।जो गुड़ उड़द दे वार शनीचर,
तिल जव लोह अन्न धन बस्तर।दान दिये से होंय सुखारी,
सोइ शनि सुन यह विनय हमारी।नाथ दया तुम मोपर कीजै,
कोटिक विघ्न क्षणिक महँ छीजै।वंदत नाथ जुगल कर जोरी,
सुनहु दया कर विनती मोरी।कबहुँक तीरथ राज प्रयागा,
सरयू तोर सहित अनुरागा।कबहुँ सरस्वती शुद्ध नार महँ,
या कहुँ गिरी खोह कंदर महँ।ध्यान धरत हैं जो जोगी जनि,
ताहि ध्यान महँ सूक्ष्म होहि शनि।है अगम्य क्या करू बड़ाई,
करत प्रणाम चरण शिर नाई।जो विदेश से बार शनीचर,
मुड़कर आवेगा जिन घर पर।रहैं सुखी शनि देव दुहाई,
रक्षा रवि सुत रखें बनाई।जो विदेश जावैं शनिवारा,
गृह आवें नहिं सहै दुखारा।संकट देय शनीचर ताही,
जेते दुखी होई मन माही।सोई रवि नन्दन कर जोरी,
वन्दन करत मूढ़ मति थोरी।ब्रह्मा जगत बनावन हारा,
विष्णु सबहिं नित देत अहारा।हैं त्रिशूलधारी त्रिपुरारी,
विभू देव मूरति एक वारी।इकहोइ धारण करत शनि नित,
वंदत सोई शनि को दमनचित।जो नर पाठ करै मन चित से,
सो नर छूटै व्यथा अमित से।हौं मंत्र धन सन्तति बाढ़े,
कलि काल कर जोड़े ठाढ़े।पशु कुटुम्ब बांधन आदि से,
भरो भवन रहिहैं नित सबसे।नाना भांति भोग सुख सारा,
अन्त समय तजकर संसारा।पावै मुक्ति अमर पद भाई,
जो नित शनि सम ध्यान लगाई।पढ़ै प्रात जो नाम शनि दस,
रहैं शनीश्चर नित उसके बस।पीड़ा शनि की कबहुँ न होई,
नित उठ ध्यान धरै जो कोई।जो यह पाठ करैं चालीसा,
होय सुख साखी जगदीशा।चालिस दिन नित पढ़े सबेरे,
पातक नाशे शनी घनेरे।रवि नन्दन की अस प्रभुताई,
जगत मोहतम नाशै भाई।याको पाठ करै जो कोई,
सुख सम्पत्ति की कमी न होई।निशिदिन ध्यान धरै मनमाहीं,
आधिव्याधि ढिंग आवै नाहीं।***
॥ दोहा ॥
पाठ शनीश्चर देव को,
कीहौं विमल तैयार।
करत पाठ चालीस दिन,
हो भवसागर पार॥जो स्तुति दशरथ जी कियो,
सम्मुख शनि निहार।
सरस सुभाषा में वही,
ललिता लिखें सुधार॥